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ग़ज़ल
तंग करते हैं हमें क्यूँ पासबान-ए-कू-ए-दोस्त
और हैं दो-चार दिन हम मेहमान-ए-कू-ए-दोस्त
रशीद रामपुरी
लेख
دل دکھے روئے ہیں شاید اس جگہ اے کوئے دوست خاک کا اتنا چمک جانا ذرا دشوار تھا...
शम्सुर रहमान फ़ारूक़ी
लेख
دل دکھے روئے ہیں شاید اس جگہ اے کوئے دوست خاک کا اتنا چمک جانا ذرا دشوار تھا...
शम्सुर रहमान फ़ारूक़ी
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ग़ज़ल
जो कू-ए-दोस्त को जाऊँ तो पासबाँ के लिए
नहीं है ख़्वाब से बेहतर कुछ अरमुग़ाँ के लिए
मुस्तफ़ा ख़ाँ शेफ़्ता
ग़ज़ल
दिल-दुखे रोए हैं शायद इस जगह ऐ कू-ए-दोस्त
ख़ाक का इतना चमक जाना ज़रा दुश्वार था