aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
परिणाम "گم_سم"
गुम-सुम तन्हा बैठा होगासिगरेट के कश भरता होगा
ऐसे गुम-सुम वो सोचते क्या थेजाने यारों के फ़ैसले क्या थे
कोहर में गुम-सुम समाअतो तुम गवाह रहनामैं एक दीवार-ए-गिर्या हर रात चुन रहा हूँ
दीवानगी की राह में गुम-सुम हुआ न था!दुनिया में अपना कोई कहीं आश्ना न था!
चुप चुप मकान रास्ते गुम-सुम निढाल वक़्तइस शहर के लिए कोई दीवाना चाहिए
महशर एक मज़हबी इस्तिलाह है ये तसव्वुर उस दिन के लिए इस्तेमाल होता है जब दुनिया फ़ना हो जाएगीगी और इन्सानों से उनके आमाल का हिसाब लिया जाएगा। मज़हबी रिवायात के मुताबिक़ ये एक सख़्त दिन होगा। एक हंगामा बर्पा होगा। लोग एक दूसरे से भाग रहे होंगे सबको अपनी अपनी पड़ी होगी। महशर का शेरी इस्तेमाल उस के इस मज़हबी सियाक़ में भी हुआ है और साथ ही माशूक़ के जल्वे से बर्पा होने वाले हंगामे के लिए भी। हमारा ये इन्तिख़ाब पढ़िए।
रूमान और इश्क़ के बग़ैर ज़िंदगी कितनी ख़ाली ख़ाली सी होती है इस का अंदाज़ा तो आप सबको होगा ही। इश्क़चाहे काइनात के हरे-भरे ख़ूबसूरत मनाज़िर का हो या इन्सानों के दर्मियान नाज़ुक ओ पेचीदा रिश्तों का इसी से ज़िंदगी की रौनक़ मरबूत है। हम सब ज़िंदगी की सफ़्फ़ाक सूरतों से बच निकलने के लिए मोहब्बत भरे लम्हों की तलाश में रहते हैं। तो आइए हमारा ये शेरी इन्तिख़ाब एक ऐसा निगार-ख़ाना है जहाँ हर तरफ़ मोहब्बत , लव, इश्क़ , बिखरा पड़ा है।
मंशी नवल किशोर ने 1857 के गदर के बाद भारत की संस्कृति और साहित्यिक धरोहर को सुरक्षित रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनके प्रेस ने 1858 से 1950 तक धर्म, इतिहास, साहित्य, विज्ञान और दर्शन पर लगभग छह हजार किताबें प्रकाशित की। रेख़ता पर मंशी नवल किशोर प्रेस की किताबों का एक क़ीमती संग्रह उपलब्ध है।
गुम-सुमگُم سُم
Gul-e-Sar Sabad
फ़ारूक़ मुज़्तर
Shola-e-Gul Se Rang-e-Shafaq Tak
सईद अफ़सर
काव्य संग्रह
Gul-e-Sah Barg
जमील अज़ीमाबादी
Gul-e-Sarsabad
ग़ुलाम मुर्तज़ा राही
संकलन
Gul-e-Sarsabd
गु़लाम मुर्तज़ा राही
ग़ज़ल
Gul-e-Sar-Sabd
शुआ दुर्रानी
Gumshuda Sur
अख़्लाक़ अहमद
Chehra-e-Gul Dhuan Dhuan Sa Hai
परवीन शीर
महिलाओं की रचनाएँ
Bahar Kab Aayegi
एलैग्ज़ैंडर सुन
नॉवेल / उपन्यास
Sir Syed Number
जुल्फिकार बेग चुगताई
बर्ग-ए-गुल
Sar e loh e sham e Firaq Phir
सुबास गुल
Jazb Ke Sau Sher
जज़्ब अालमपुरी
अशआर
Sitam Gar
दीबा ख़ानम
नीतिपरक
Sar Shakh-e-Gul
साएमा ज़ुलनूर
कहानियाँ
Kahti Hai Tujhke Khalq-e-Khuda Kya?
अशफ़ाक़ अहमद उमर
ख़ाका: इतिहास एवं समीक्षा
दीवारें दरवाज़े दरीचे गुम-सुम हैंबातें करते बोलते कमरे गुम-सुम हैं
बहुत गुम-सुम बहुत ख़मोश हैवो चंद अर्से से
روکو اسے۔۔۔ گم سم کیوں کھڑے ہو۔ چلو۔...
گم سم سے بیٹھی ہوائیں چلنے اور بولنے لگیں پیڑوں کی ساکت شاخیں ہلنے لگیں...
गुम-सुमसभी गलियाँ और
याक़ूत पिघलते रहते हैंअब अपनी गुम-सुम आँखों में
कैसा सदमा तुम पर गुज़रागुम-सुम गुम-सुम क्यों रहते हो
ख़ौफ़ के मारेगुम-सुम का क्यों
میں نے اپنے ارد گرد نظر ڈالی، چاروں طرف سکوت تھا، کوئی چاپ نہیں، ہوا بھی گم سم میز، کرسیوں اور بستروں پر فسوں کا موسم...
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