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नज़्म
रात और रेल
एक इक हरकत से अंदाज़-ए-बग़ावत आश्कार
अज़्मत-ए-इंसानियत के ज़मज़मे गाती हुई
असरार-उल-हक़ मजाज़
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ग़ज़ल
जिन को आ जाता है जीने का सलीक़ा 'अज़्मत'
मुस्कुराते हैं सर-ए-दार तुम्हें क्या मालूम
अज़मत भोपाली
ग़ज़ल
मिरी हर बात 'अज़्मत' तर्जुमान-ए-अहल-ए-आलम है
ये दुनिया मुझ को मेरी हम-नवा मालूम होती है
अज़मत भोपाली
ग़ज़ल
मैं अपनी दास्तान-ए-ग़म को क्या उन्वान दूँ 'अज़्मत'
मुरत्तब दिल के औराक़-ए-परेशाँ हो भी सकते हैं
अज़मत भोपाली
नज़्म
आज़ादी के बा'द
दोस्तो आगे बढ़ा जम्हूरियत का कारवाँ
आज ज़िंदा हो गई है 'अज़्मत-ए-हिन्दोस्ताँ
अज़मत अब्दुल क़य्यूम ख़ाँ
ग़ज़ल
गुरेज़ाँ जादा-ए-इंसानियत से आदमी कब तक
छुपाई जाएगी तारीकियों में रौशनी कब तक
उस्ताद अज़मत हुसैन ख़ाँ
नज़्म
हम लोग
ज़मीर-ए-फ़ितरत-ए-इंसानियत को चौंका कर
उरूज-ए-क़िस्मत-ए-आदम दिखाएँगे हम लोग
अज़मत अब्दुल क़य्यूम ख़ाँ
ग़ज़ल
सच तो ये है कि हमें बाग़-ए-जहाँ में अज़्मत
सैकड़ों ख़ार मिले इक गुल-ए-तर से पहले