aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
परिणाम "अलामत"
ग़लत है ये उन का हंगामा करनाये सब है सिर्फ़ वहशत की अलामत
फूल थे रंग थे लम्हों की सबाहत हम थेऐसे ज़िंदा थे कि जीने की अलामत हम थे
मौत की पहली अलामत साहिबयही एहसास का मर जाना है
दरबार में अब सतवत-ए-शाही की अलामतदरबाँ का असा है कि मुसन्निफ़ का क़लम है
”तो फिर शायद आपका इशारा दर्द-ए-सर की तरफ़ है, देखिए मिर्ज़ा साहिब, हुकमा ने दर्द-ए-सर की दर्जनों क़िस्में गिनवाई हैं। मसलन आधे सर का दर्द, सर के पिछले हिस्से का दर्द, सर के अगले हिस्से का दर्द, सर के दरमियानी हिस्से का दर्द, उनमें हर दर्द के लिए एक ख़ास...
किताब को मर्कज़ में रख कर की जाने वाली शायरी के बहुत से पहलू हैं। किताब महबूब के चेहरे की तशबीह में भी काम आती है और आम इंसानी ज़िंदगी में रौशनी की एक अलामत के तौर पर भी। किताब के इस हैरत-कदे में दाख़िल होइए और लुत्फ उठाइये।
शायरी मे कोई भी लफ़्ज़ किसी एक मानी, किसी एक रंग, किसी एक सूरत, किसी एक ज़हनी और जज़्बाती रवय्ये तक महदूद नहीं रहता है। साहिल को मौज़ू बनाने वाले इस शेरी बयानिये में आप इस बात को महसूस करेंगे कि साहिल पर होना समुंदर की सफ़्फ़ाकियों से निकलने के बाद कामियाबी का इस्तिआरा भी है साथ ही बुज़-दिली, कम-हिम्मती और ना-मुरादी की अलामत भी। साहिल की और भी कई मुतज़ाद मानियाती जहतें हैं। हमारे इस इन्तिख़ाब में आप साहिल के उन मुख़्तलिफ़ रंगों से गुज़रेंगे।
दोपहर, ज़िन्दगी के कठिन लम्हों और उन से जुड़ी परेशानियों का अलामत होने के साथ कई दूसरे इशारों के तौर पर भी प्रचालित है। सूरज का सर के बिलकुल ऊपर होना शायरों ने अलग-अलग ढंग से पेश किया है। दोपहर शायरी ज़िन्दगी की धूप-छाँव से उपजी वह शायरी है जो हर लम्हा सच की आँच को सहने और वक़्त से आँखें मिला कर जीने का हौसला देती है। आइये एक नज़र धूप शायरी भीः
अलामतعلامت
symptom/ sign
चिह्न, निशान, लक्षण, पहचान।।
मौलाना अबुल कलाम आज़ाद एक तहज़ीबी अलामत
लईक़ सिद्दीक़ी
आलोचना
ग़ैर अलामती कहानी
अहमद जावेद
अफ़साना
शुमारा नम्बर-011
सईद शैख़
Nov 1994अलामत
Shumara Number-006
Apr 1990अलामत
Shumara Number-007
May 1990अलामत
रूपा उसकी आँखों के सामने फूली-फली, बढ़ी और जवान हुई। अभी कल ही की बात है कि उसने उस के गाल पर एक ज़ोर का धप्पा भी मारा था और उसको इतनी मजाल न हुई थी कि चूँ भी करे। हालाँकि गांव के सब छोकरे-छोकरियां गुस्ताख़ थे और बड़ों का...
कभी अलामत है शोख़ियों कीकभी किनाया है सादगी का
तुझ को सोचों तो तिरे जिस्म की ख़ुशबू आएमेरी ग़ज़लों में अलामत की तरह तू आए
यहां भी मैंने जान-बूझ कर ऐसे मिसरे लिए हैं जिनमें तर्तीब अलफ़ाज़ नस्र से बहुत क़रीब है, फिर भी बाक़ायदा नस्र यूं होगी, रात अभी बाक़ी जब (मेरे) सर-ए-बालीं आकर मुझसे चांद ने कहा (कि) जाग सह्र आई है। जाग, इस शब जो मए ख़्वाब तिरा हिस्सा थी (दो) जाम...
एक बार एक ज़ेवर बनवाना था, मैं तो हज़रत को जानती थी, उनसे कुछ पूछने की ज़रूरत न समझी, एक पहचान के सुनार को बुला रही थी, इत्तिफ़ाक़ से आप भी मौजूद थे, बोले ये फ़िर्क़ा बिल्कुल एतबार के क़ाबिल नहीं, धोका खाओगी। मैं एक सुनार को जानता हूँ, मेरे...
और जब सावन में ऊदी ऊदी घटाऐं उठती हैं तो अदवान खोल कर लड़कियां दरवाज़े की चौखट और वालिदैन चारपाइयों में झूलते हैं। उसी पर बैठ कर मौलवी साहिब क़मची के ज़रिये अख़लाक़ीयात के बुनियादी उसूल ज़ेहन नशीन कराते हैं। उसी पर नौमौलूद बच्चे ग़ाओं ग़ाओं करते, चुंधियाई हुई आँखें...
अब अगर कोई सर-फिरा मुँह माँगी उजरत देकर भी अपने मज़दूरों से ऐसे मौसमी हालात में यूं काम कराए तो पहले ही दिन उसका चालान हो जाए। मगर क्रिकेट में चूँकि आम तौर से मुआवज़ा लेने का दस्तूर नहीं, इसलिए चालान का सवाल पैदा नहीं होता। हमारे हाथों जिस तरह...
ये मोहब्बत की अलामत तो नहीं है कोईतेरा चेहरा नज़र आता है जिधर जाते हैं
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