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ग़ज़ल
आराइश-ए-जमाल की कमसिन को क्या तमीज़
उलझी है उस की ज़ुल्फ़-ए-शिकन-दर-शिकन तमाम
अबुल बक़ा सब्र सहारनपुरी
ग़ज़ल
कुछ ऐसे ख़ाक उड़ाई है दश्त-ए-हू में 'जमाल'
कि जज़्ब-ए-शौक़ भी तफ़रीक़-ए-मा-ओ-तू भी गई