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ग़ज़ल
जहाँ लब कोशिश-ए-इज़हार-ए-मतलब को तरसते हैं
वहाँ हर साँस को इक दास्ताँ कहना ही पड़ता है
सूफ़ी ग़ुलाम मुस्ताफ़ा तबस्सुम
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तंज़-ओ-मज़ाह
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
ये माना पर्दा-दारी भी बहुत पुर-लुत्फ़ होती है
बुरा क्या है मोहब्बत का अगर इज़हार हो जाए
कँवल एम ए
ग़ज़ल
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
बात करने से भी नफ़रत हो गई दिलदार को
वाह-रे इज़हार-ए-उल्फ़त वाह-रे तासीर-ए-इश्क़