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ग़ज़ल
कतराते हैं बल खाते हैं घबराते हैं क्यूँ लोग
सर्दी है तो पानी में उतर क्यूँ नहीं जाते
महबूब ख़िज़ां
शेर
कतराते हैं बल खाते हैं घबराते हैं क्यूँ लोग
सर्दी है तो पानी में उतर क्यूँ नहीं जाते
महबूब ख़िज़ां
तंज़-ओ-मज़ाह
मुजतबा हुसैन
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रेखाचित्र
सय्यद ज़मीर जाफ़री
हास्य
'ख़्वाह-मख़ाह' मिलने से कतराते हो जिन से दिन में
क्या करोगे जो तुम्हें रात को ख़्वाबों में मिलें
ग़ौस ख़ाह मख़ाह हैदराबादी
ग़ज़ल
क़तरात-ए-अरक़ हैं नहीं ये सिल्क-ए-गुहर हैं
क्या अक्स-फ़गन उस रुख़-ए-गुलनार के ऊपर