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ग़ज़ल
ख़ुद इश्क़ क़ुर्ब-ए-जिस्म भी है क़ुर्ब-ए-जाँ के साथ
हम दूर ही से उन को पुकार आए ये नहीं
जाँ निसार अख़्तर
नज़्म
ख़ाक-ए-दिल
अपना हर ख़्वाब-ए-जवाँ सौंप चला हूँ तुझ को
अपना सरमाया-ए-जाँ सौंप चला हूँ तुझ को
जाँ निसार अख़्तर
नज़्म
आख़िरी लम्हा
बड़ी है बात जो तुम रंग-ए-गुल निखार सको
ये दूर दौर-ए-जहाँ काश तुम को रास आए