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ग़ज़ल
शौक़ तौफ़-ए-हरम-ए-कू-ए-सनम का दिन रात
सूरत-ए-नक़्श-ए-क़दम ठोकरें खिलवाता है
मियाँ दाद ख़ां सय्याह
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ग़ज़ल
हमारी जुस्तुजू पर बद-गुमानी है यहाँ सब को
यही कूचा हमें कू-ए-सनम महसूस होता है
नज़्मी सिकंदराबादी
ग़ज़ल
क्या तिरे हाथ आ गया कब का तुझे ग़ुबार था
कू-ए-सनम से क्यूँ सबा ख़ाक मिरी उड़ा चली