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ग़ज़ल
अल्लाह ने बख़्शी है क्या नश्व-ओ-नुमा उस को
सौ ख़िर्मन-ए-हस्ती है इक दाना मोहब्बत का
साक़िब अज़ीमाबादी
ग़ज़ल
नक़ाब-ए-रुख़ उलटना ख़िर्मन-ए-हस्ती का जल जाना
इसी बिजली को शायद जल्वा-ए-जानाना कहते हैं
हबीबुर्रहमान सिद्दीक़ी
नज़्म
अश्नान
वो मस्त-ए-ख़िराम आई उसी तौर गई भी
पर बर्क़-ए-तपाँ ख़िर्मन-ए-हस्ती पर गिरी भी
रिज़्वानुल्लाह
ग़ज़ल
किसी दिन जिस के शो'ले ख़िर्मन-ए-हस्ती को फूंकेंगे
उसी बिजली को हम शम्अ'-ए-तरब-ख़ाना समझते हैं
अलम मुज़फ़्फ़र नगरी
ग़ज़ल
न हो जिस सर में सौदा सरफ़रोशी का वो सर क्या है
न फूंके ख़िर्मन-ए-हस्ती तो वो सोज़-ए-जिगर क्या है