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शेर
औरत अपना आप बचाए तब भी मुजरिम होती है
औरत अपना आप गँवाए तब भी मुजरिम होती है
नीलमा नाहीद दुर्रानी
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ग़ज़ल
तलब के मौसम गँवाए मैं ने कमाल-ए-ग़म से धुआँ धुआँ तुम
शिकायतें ये कड़े महाज़ों से लौट आने के बाद होंगी
मुसव्विर सब्ज़वारी
ग़ज़ल
जिन ख़्वाबों से नींद उड़ जाए ऐसे ख़्वाब सजाए कौन
इक पल झूटी तस्कीं पा कर सारी रात गँवाए कौन
फ़ज़्ल ताबिश
ग़ज़ल
क्या ऐसी मंज़िलों के लिए नक़्द-ए-जाँ गंवाएँ
जो ख़ुद हमारे नक़्श-ए-कफ़-ए-पा के दम से हैं