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ग़ज़ल
मिरी ख़ुद्दार 'फ़ितरत' की ख़ुदा ही आबरू रक्खे
ख़िज़ाँ के दौर में अज़्म-ए-बहाराँ ले के चलता हूँ
फ़ितरत अंसारी
ग़ज़ल
तुझ से और चश्म-ए-तवज्जोह का गिला क्या मा'नी
तेरा फ़ितरत तिरे इख़्लास के क़ाबिल भी नहीं
फ़ितरत अंसारी
ग़ज़ल
'ज़मीर'-ए-सरकश-ओ-आशुफ़्ता-सर पे जाने क्या गुज़री
उसूलों से वो कर के आज समझौता निकलता है
ज़मीर अहमद
नज़्म
हम लोग
ज़मीर-ए-फ़ितरत-ए-इंसानियत को चौंका कर
उरूज-ए-क़िस्मत-ए-आदम दिखाएँगे हम लोग
अज़मत अब्दुल क़य्यूम ख़ाँ
ग़ज़ल
चश्म-ए-फ़ितरत है बहार-ए-ग़ुंचा-ओ-गुल की कफ़ील
अब्र उट्ठा झूम कर बरसा चमन लहरा गया