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ग़ज़ल
मुद्दत हुई उस जान-ए-हया ने हम से ये इक़रार किया
जितने भी बदनाम हुए हम उतना उस ने प्यार किया
जाँ निसार अख़्तर
ग़ज़ल
कोई आज़ुर्दा करता है सजन अपने को हे ज़ालिम
कि दौलत-ख़्वाह अपना 'मज़हर' अपना 'जान-ए-जाँ' अपना
मज़हर मिर्ज़ा जान-ए-जानाँ
ग़ज़ल
अज़-बस वो सियह-कार-ए-हया हूँ मैं तह-ए-ख़ाक
गाहे मिरे मरक़द में उजाला नहीं होता
मिर्ज़ा रहीमुद्दीन हया
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ग़ज़ल
लिखा जो यार को मज़मून-ए-वस्ल का काग़ज़
हवा-ए-शौक़ में फिर कर हवा हुआ काग़ज़
मिर्ज़ा रहीमुद्दीन हया
ग़ज़ल
सहल समझे थे दम-ए-क़त्ल गिराँ-जानी को
हो गया काम तिरी तेग़ को दुश्वार अपना
मिर्ज़ा रहीमुद्दीन हया
ग़ज़ल
हुआ है सीने में शायद जिगर दो पारा 'हया'
बजाए अश्क जो आँखों से ख़ून-ए-नाब आया
मिर्ज़ा रहीमुद्दीन हया
ग़ज़ल
हुआ है हाल 'हया' का ये हिज्र में तेरे
कि अब तो साँस भी दो-दो पहर नहीं आता
मिर्ज़ा रहीमुद्दीन हया
ग़ज़ल
दाम-ए-बला-ए-ज़ुल्फ़ में दिल को फँसाऊँ क्यों
डालूँ मैं इस अज़ाब में क्यों अपनी जान आप