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ग़ज़ल
मुझे है शहर के घरों से सिर्फ़ इस क़दर गिला
कि भाई हुस्न आसमान-ए-लख़्त-लख़्त में नहीं
अहमद शहरयार
ग़ज़ल
दुख़्तर-ए-रज़ पे गिरें मस्त पतंगों की तरह
शम-ए-महफ़िल हो ये लख़्त-ए-जिगर-ए-जाम-ए-शराब