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ग़ज़ल
वो तो कहिये कि है पर्वाज़-ए-तख़य्युल से परे
वर्ना यज़्दाँ भी किसी तीर की ज़द पर होता
बद्र-ए-आलम ख़ाँ आज़मी
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शेर
जमील मज़हरी
ग़ज़ल
जमील मज़हरी
नज़्म
वालिदा मरहूमा की याद में
दाम-ए-सिमीन-ए-तख़य्युल है मिरा आफ़ाक़-गीर
कर लिया है जिस से तेरी याद को मैं ने असीर
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
जब तिरे शहर से गुज़रता हूँ
अपने ग़म-ख़ाना-ए-तख़य्युल में
तुझ से होती है गुफ़्तुगू अब भी