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ग़ज़ल
अहल-ए-दानिश की निगाहों में हदफ़ कोई नहीं
सर तो अब भी है मगर संग-ब-कफ़ कोई नहीं
शहज़ाद अंजुम बुरहानी
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ग़ज़ल
यहाँ इंसाफ़ होना ग़ैर-मुमकिन है मियाँ 'दानिश'
ये मुंसिफ़ हक़-बयानी को ज़रा मुश्किल समझता है