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नज़्म
बंजारा-नामा
ज़र दाम-दिरम का भांडा है बंदूक़ सिपर और खांडा है
जब नायक तन का निकल गया जो मुल्कों मुल्कों हांडा है
नज़ीर अकबराबादी
तंज़-ओ-मज़ाह
बह्र जमा दिरम-ओ-दाम निकल जाता है एक बूढ़े से थके-माँदे से रहवार के पास...
कन्हैया लाल कपूर
नज़्म
मुफ़्लिसी
उस ख़ूब-रू को कौन दे अब दाम और दिरम
जो कौड़ी कौड़ी बोसे को राज़ी हो दम-ब-दम
नज़ीर अकबराबादी
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ग़ज़ल
शकील बदायूनी
ग़ज़ल
अनमोल सही नायाब सही बे-दाम-ओ-दिरम बिक जाते हैं
बस प्यार हमारी क़ीमत है मिल जाए तो हम बिक जाते हैं