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ग़ज़ल
मोहब्बत ना-समझ होती है समझाना ज़रूरी है
जो दिल में है उसे आँखों से कहलाना ज़रूरी है
वसीम बरेलवी
कुल्लियात
हम से क्यों उलझा करे है आ समझ ऐ ना-समझ
कज-तबीअ'त जो मुख़ालिफ़ हैं उन्हों से जा समझ
मीर तक़ी मीर
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ग़ज़ल
हमें मौसमों का शुऊ'र है हमें ना-समझ न ख़याल कर
तू नवेद-ए-फ़स्ल-ए-बहार दे न लहू फ़ज़ा में उछाल कर
अतहर ज़ियाई
नज़्म
नज़्म
बिगड़ गया है किसी तिफ़्ल-ए-ना-समझ की तरह
किसी दलील को मंतिक़ को जानता ही नहीं