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ग़ज़ल
मुड़ के देखूँ तो अक़ब में कुछ नज़र आता नहीं
सामने भी गुम निशान-ए-रह-गुज़र होने को है
मोहम्मद अहमद रम्ज़
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ग़ज़ल
मिरी हमसरी का ख़याल क्या मिरी हम-रही का सवाल क्या
रह-ए-इश्क़ का कोई राह-रौ मिरी गर्द को भी न पा सका
नरेश एम. ए
ग़ज़ल
किस से मिलते हैं कहाँ जाते हैं क्या करते हैं
वसवसे दिल में ये रह रह के उठा करते हैं
शकील इबन-ए-शरफ़
ग़ज़ल
निशान-ए-ज़ख़्म पे निश्तर-ज़नी जो होने लगी
लहू में ज़ुल्मत-ए-शब उँगलियाँ भिगोने लगी