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ग़ज़ल
अज़-बस वो सियह-कार-ए-हया हूँ मैं तह-ए-ख़ाक
गाहे मिरे मरक़द में उजाला नहीं होता
मिर्ज़ा रहीमुद्दीन हया
ग़ज़ल
घर में जाती नहीं पहचानी तिरी शक्ल 'हया'
उस पे हसरत कि दर-ए-यार पे बिस्तर न हुआ
मिर्ज़ा रहीमुद्दीन हया
ग़ज़ल
लिखा जो यार को मज़मून-ए-वस्ल का काग़ज़
हवा-ए-शौक़ में फिर कर हवा हुआ काग़ज़
मिर्ज़ा रहीमुद्दीन हया
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ग़ज़ल
रू-सियह ही सिफ़त-ए-नक़्श-ए-नगीं रखता है
ख़ूब रौशन है 'हया' बख़्त-ए-सियहकार अपना
मिर्ज़ा रहीमुद्दीन हया
ग़ज़ल
हुआ है सीने में शायद जिगर दो पारा 'हया'
बजाए अश्क जो आँखों से ख़ून-ए-नाब आया
मिर्ज़ा रहीमुद्दीन हया
ग़ज़ल
हुआ है हाल 'हया' का ये हिज्र में तेरे
कि अब तो साँस भी दो-दो पहर नहीं आता
मिर्ज़ा रहीमुद्दीन हया
ग़ज़ल
ये माना पर्दा-दारी भी बहुत पुर-लुत्फ़ होती है
बुरा क्या है मोहब्बत का अगर इज़हार हो जाए
कँवल एम ए
ग़ज़ल
हालत-ए-क़ल्ब सर-ए-बज़्म बताऊँ क्यूँकर
पर्दा-ए-दिल में है इक पर्दा-नशीं का लालच