aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
परिणाम "पहुँचूँगा"
अंजाम को पहुँचूँगा मैं अंजाम से पहलेख़ुद मेरी कहानी भी सुनाएगा कोई और
पहुँचूँगा सेहन-ए-बाग़ में शबनम-रुतों के साथसूखे हुए गुलों में अरक़ छोड़ जाऊँगा
फ़ोन तो दूर वहाँ ख़त भी नहीं पहुँचेंगेअब के ये लोग तुम्हें ऐसी जगह भेजेंगे
गली से तिरी दिल को ले तो चला हूँमैं पहुँचूँगा जब तक ये आता रहेगा
शायरी में महबूब माँ भी है। माँ से मोहब्बत का ये पाक जज़्बा जितने पुर-असर तरीक़े से ग़ज़लों में बरता गया इतना किसी और सिन्फ़ में नहीं। हम ऐसे कुछ मुंतख़ब अशआर आप तक पहुँचा रहे हैं जो माँ को मौज़ू बनाते हैं। माँ के प्यार, उस की मोहब्बत और शफ़क़त को और अपने बच्चों के लिए उस प्यार को वाज़ेह करते हैं। ये अशआर जज़्बे की जिस शिद्दत और एहसास की जिस गहराई से कहे गए हैं इस से मुतअस्सिर हुए बग़ैर आप नहीं रह सकते। इन अशआर को पढ़िए और माँ से मोहब्बत करने वालों के दर्मियान शेयर कीजिए।
उर्दू शायरी में रिश्तों की बड़ी अहमियत है। पिता से मोहब्बत और प्रेम का ये पाक जज़्बा भी शायरी का विषय रहा है। हम ऐसे कुछ मुंतख़ब अशआर आप तक पहुँचा रहे हैं जो पिता को मौज़ू बनाते हैं। पिता के प्यार, उस की मोहब्बत और शफ़क़त को और अपने बच्चों के लिए उस की जां-निसारी को वाज़ेह करते हैं। ये अशआर जज़्बे की जिस शिद्दत और एहसास की जिस गहराई से कहे गए हैं इससे मुतअस्सिर हुए बग़ैर आप नहीं रह सकते। इन अशआर को पढ़िए और पिता से मोहब्बत करने वालों के दर्मियान शेयर कीजिए।
मुस्कुराहट को हम इंसानी चेहरे की एक आम सी हरकत समझ कर आगे बढ़ जाते हैं लेकिन हमारे इन्तिख़ा कर्दा इन अशआर में देखिए कि चेहरे का ये ज़रा सा बनाव किस क़दर मानी-ख़ेज़ी लिए हुए है। इश्क़-ओ-आशिक़ी के बयानिए में इस की कितनी जहतें हैं और कितने रंग हैं। माशूक़ मुस्कुराता है तो आशिक़ उस से किन किन मानी तक पहुँचता है। शायरी का ये इन्तिख़ाब एक हैरत कदे से कम नहीं इस में दाख़िल होइये और लुत्फ़ लीजिए।
“ओटो... तुम्हारी उम्र कितनी है।” मैंने मुस्कुरा कर पूछा। “मैं इक्कीस साल का हूँ।” उसने बड़े वक़ार से जवाब दिया। “और जब जर्मनी वापस पहुँचूँगा तो बाईस साल का हो जाऊंगा। और उसके अगले साल मुझे डॉक्टरेट मिल जाएगा। मैं यूनीवर्सिटी में जर्मन गिनाइया शायरी का मुता’ला कर रहा हूँ।...
ये जंग-ए-अज़ीम के ख़ातमे के बाद की बात है जब मेरा अज़ीज़ तरीन दोस्त लेफ्टिनेंट कर्नल मोहम्मद सलीम शेख़ (अब) ईरान-इराक़ और दूसरे महाज़ों से होता हुआ बम्बई पहुंचा। उसको अच्छी तरह मालूम था, मेरा फ़्लैट कहाँ है। हममें गाहे-गाहे ख़त-ओ-किताबत भी होती रहती थी लेकिन उससे कुछ मज़ा नहीं...
मर के यारान-ए-अदम के पास पहुँचूँगा 'अमीर'चलते चलते जान जाएगी सफ़र है दूर का
खोल देगा दश्त-ए-वहशत उक़्दा-ए-तक़दीर कोतोड़ कर पहुँचूँगा मैं पंजाब की ज़ंजीर को
मुझ को नुमूद-ओ-नाम की पर्वा नहीं मगरबुलवाया बीबीसी ने तो पहुँचूँगा वक़्त पर
पहुँचूँगा कशाकश में जहाँ तुम ने बुलायातुम हश्र के मैदाँ से सदा क्यूँ नहीं देते
यूँ लगता है रस्ते में सब लुट जाएगाघर पहुँचूँगा तो कुछ साँसें रह जाएँगी
साहिल पे मैं पहुँचूँगा मौजों की तरह लेकिनतुम को न अगर पाया लौट आउँगा साहिल से
मंज़ूर है ख़ुदा को तो पहुँचूँगा रोज़-ए-हश्रचेहरे पे ख़ाक मल के दर-ए-बूतुराब की
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