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नज़्म
ज़मीर
रखते हैं दूसरों की कहाँ पास-ए-आबरू
ग़ीबत की ख़ू को आज ही कर दीजे आख़-थू
मुर्तजा साहिल तस्लीमी
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ग़ज़ल
हमारी मय्यत पे तुम जो आना तो चार आँसू बहा के जाना
ज़रा रहे पास-ए-आबरू भी कहीं हमारी हँसी न करना
दाग़ देहलवी
ग़ज़ल
लगा है 'आबरू' मुझ कूँ 'वली' का ख़ूब ये मिसरा
सवाल आहिस्ता आहिस्ता जवाब आहिस्ता आहिस्ता