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ग़ज़ल
नहीं अच्छा ज़बान-ए-हाल से आह-ओ-बुका टपकें
अभी माज़ी के लब पर ही है कुछ शोर-ए-फ़ुग़ाँ बाक़ी
रुख़्साना निकहत लारी उम्म-ए-हानी
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ग़ज़ल
फ़र्त-ए-ग़म-ओ-अलम से जब दिल हुआ है गिर्यां
उस ने इनायतों के दरिया बहा दिए हैं
वहशत रज़ा अली कलकत्वी
ग़ज़ल
ये फ़र्त-ए-गिर्या-ओ-ज़ारी का है असर 'मंशा'
ज़मीं मकानों की गीली है नम हैं दीवारें
मंशाउर्रहमान ख़ाँ मंशा
कुल्लियात
हो तुम जो मेरे हैरती-ए-फ़र्त-ए-शौक़-ए-वस्ल
क्या जानो दिल किसू से तुम्हारा लगा नहीं