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ग़ज़ल
'आलिम' फ़लक-ए-तफ़रक़ा-पर्दाज़ का डर है
बनते ही बिगड़ जाए न तक़दीर हमारी
मिर्ज़ा अल्ताफ़ हुसैन आलिम लखनवी
ग़ज़ल
क़ुर्ब ओ दीदार तो मा'लूम किसी का फिर भी
कुछ पता सा फ़लक-ए-तफ़रक़ा-पर्दाज़ तो दे
फ़िराक़ गोरखपुरी
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ग़ज़ल
उम्र गुज़री कभी साक़ी ने 'फ़लक' ये न कहा
इतनी पी ले कि तुझे होश में ला भी न सकूँ
हीरा लाल फ़लक देहलवी
ग़ज़ल
पहुँच गए सर-ए-मंज़िल जो हम-सफ़र थे 'फ़लक'
हमीं तरसते रहे गर्द-ए-कारवाँ के लिए
हीरा लाल फ़लक देहलवी
ग़ज़ल
इब्न-ए-आदम ने 'फ़लक' होश सँभाला जिस दम
सब से पहले रखी बुनियाद सनम-ख़ानों की
हीरा लाल फ़लक देहलवी
ग़ज़ल
चंद आँसू ही मिरे दिल पे 'फ़लक' गिर जाएँ
आतिश-ए-ग़म से सुलगता है शरर की सूरत
हीरा लाल फ़लक देहलवी
ग़ज़ल
'फ़लक' मैं कैफ़िय्यत-ए-दिल से ख़ुद परेशाँ हूँ
किसी फ़ुग़ाँ में असर है किसी फ़ुग़ाँ में नहीं
हीरा लाल फ़लक देहलवी
ग़ज़ल
ऐ 'फ़लक' आई यहाँ भी मुझ को याद-ए-आशियाँ
बर्क़ तू गर्दूं पे चमकी जगमगा उट्ठा क़फ़स
हीरा लाल फ़लक देहलवी
ग़ज़ल
'फ़लक' मैं सर-ज़मीन-ए-'दाग़'-ओ-'ग़ालिब' का हूँ इक ज़र्रा
वतन है शहर-ए-देहली ज़िंदगी उर्दू ज़बाँ मेरी
हीरा लाल फ़लक देहलवी
ग़ज़ल
अब 'फ़लक' है इक नई दुनिया की दिल की जुस्तुजू
ये ज़मीं देखी हुई है आसमाँ देखा हुआ