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ग़ज़ल
जो अक्सर बार-वर होने से पहले टूट जाते थे
वही ख़स्ता शिकस्ता अहद-ओ-पैमाँ याद आते हैं
अब्दुल हमीद अदम
ग़ज़ल
ख़िज़ाँ का क़र्ज़ तो इक इक दरख़्त पर है यहाँ
ये और बात कि हर शाख़ बार-वर है यहाँ
इक़बाल अशहर कुरैशी
ग़ज़ल
तमन्ना है कि 'रासिख़' हम्द-गोई के वसीले से
रियाज़-ए-दहर में नख़्ल-ए-सुख़न हो बार-वर मेरा