aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
परिणाम "बाज़-औक़ात"
बाज़ औक़ात मुझ को लगता हैज़िंदगी बस नज़र का धोका है
बाज़ औक़ात तिरा नाम बदल जाता हैबाज़ औक़ात तिरे नक़्श भी खो जाते हैं
सच को झूट बना जाता है बाज़ औक़ातबंदा ठोकर खा जाता है बाज़ औक़ात
बाज़ औक़ात किसी और के मिलने से 'अदम'अपनी हस्ती से मुलाक़ात भी हो जाती है
बाज़ औक़ात फ़राग़त में इक ऐसा लम्हा आता हैजिस में हम ऐसों को अच्छा-ख़ासा रोना आता है
ज़लज़ला एक क़ुदरती आफ़त है जिससे बाज़-औक़ात बड़ी बड़ी इन्सानी तबाहिया हो जाती हैं और इन्सान की अपनी सी सारी तैयारियाँ यूँ ही धरी रह जाती हैं। हमारे मुन्तख़ब-कर्दा ये शेर क़ुदरत के मुक़ाबले में इन्सानी कमज़ोरी और बेबसी को भी वाज़ेह करते हैं और साथ ही इस बेबसी से फूटने वाले इन्सानी एहतिजाज और ग़ुस्से को भी।
मुसाफ़िर शायरी और ज़िन्दगी दोनों का एक दिलचस्प किरदार है। ज़िन्दगी यूँ तो ख़ुद भी एक सफ़र है और हम सब मुसाफिर। मंज़िल पर पहुंचने की आरज़ू किस तरह उसे तमाम परेशानियों के बावजूद सरगर्म-ए-सफ़र रखती है और बाज़ औक़ात किस तरह मंज़िलें भी साथ-साथ चलने लगती हैं, इसका अंदाज़ा मुसाफ़िर शायरी की रौशनी में लगाना आसान हो जाता है।
दोस्ती की तरह दुश्मनी भी एक बहुत बुनियादी इन्सानी जज़्बा है। ये जज़्बा मनफ़ी ही सही लेकिन बाज़-औक़ात इससे बच निकलना और इस से छुटकारा पाना ना-मुमकिन सा होता है अलबत्ता शायरों ने इस जज़्बे में भी ख़ुश-गवारी के किए पहलू निकाल लिए हैं, उनका अंदाज़ा आपको हमारा ये इंतिख़ाब पढ़ कर होगा। इस दुश्मनी और दुश्मन का एक ख़ालिस रूमानी पहलू भी है। इस लिहाज़ से माशूक़ आशिक़ का दुश्मन होता है जो ता उम्र ऐसी चालें चलता रहता है जिससे आशिक़ को तकलीफ़ पहुंचे, रक़ीब से रस्म-ओ-राह रखता है। इस की दुश्मनी की और ज़्यादा दिल-चस्प और मज़ेदार सूरतों को जानने के लिए हमारा ये इन्तिख़ाब पढ़िए।
बाज़-औक़ातبعض اوقات
sometimes
सच्चाई वो जंग है जिस में बाज़ औक़ात सिपाही कोआप मुक़ाबिल अपने ही डट जाना पड़ता है
बाज़ औक़ात उसे याद कियाबाज़ औक़ात तिलावत कर ली
बाज़ औक़ातमोहब्बत और नफ़रत
बाज़ औक़ात तो इश्क़ भी पहला काम नहीं रहताबाज़ औक़ात मसाइल कुछ दीगर भी होते हैं
बाज़-औक़ात मुझे दुनिया परदुनिया का भी शुबह होता है
अक्सर औक़ात मैं ता'बीर बता देता हूँबाज़ औक़ात इजाज़त नहीं होती मुझ को
बाज़ औक़ात सोचती हूँ तुमअपनी औक़ात क्यूँ नहीं समझे
बाज़ औक़ात सोचता हूँ मैंएक ख़ुशबू है सिर्फ़ तेरा वजूद
'कैफ़' वीरानी-ए-गुलिस्ताँ भीबाज़ औक़ात ले उड़े पत्ते
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