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नज़्म
ए'तिराफ़
शहरयारों से रक़ाबत का जुनूँ तारी था
बिस्तर-ए-मख़मल-ओ-संजाब थी दुनिया मेरी
असरार-उल-हक़ मजाज़
ग़ज़ल
नींद तो दर्द के बिस्तर पे भी आ सकती है
उन की आग़ोश में सर हो ये ज़रूरी तो नहीं
ख़ामोश ग़ाज़ीपुरी
ग़ज़ल
सहर-ए-दम किर्चियाँ टूटे हुए ख़्वाबों की मिलती हैं
तो बिस्तर झाड़ कर चादर हटा कर देख लेता हूँ