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ग़ज़ल
जो नंग-ए-इश्क़ हैं वो बुल-हवस फ़रियाद करते हैं
लब-ए-ज़ख़्म-ए-'हवस' से कब सदा-ए-ज़ींहार आई
मिर्ज़ा मोहम्मद तक़ी हवस
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ग़ज़ल
दिलबरी हर बुल-हवस की हद सीं अफ़्ज़ूँ मत करो
मुफ़लिस-ए-बे-कद्र कूँ यक-पल में क़ारूँ मत करो
सिराज औरंगाबादी
कुल्लियात
ग़लत है इश्क़ में ऐ बुल-हवस अंदेशा राहत का
रिवाज इस मुल्क में है दर्द-ओ-दाग़-ओ-रंज-ओ-कुलफ़त का
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
बुल-हवस कम-फ़हम है वो आदमी नादान है
जो ये समझा इश्क़ कुछ मुश्किल नहीं आसान है
फ़ज़ल हुसैन साबिर
ग़ज़ल
ग़लत है इश्क़ में ऐ बुल-हवस अंदेशा राहत का
रिवाज इस मुल्क में है दर्द-ओ-दाग़-ओ-रंज-ओ-कुलफ़त का
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
नज़र मत बुल-हवस पर कर अरे चंचल सँभाल अँखियाँ
कि उस बद-फ़े'ल सूँ खीचेंगी आख़िर इंफ़िआल अँखियाँ
उबैदुल्लाह ख़ाँ मुब्तला
शेर
बुल-हवस गो करें तेरे लब-ए-शीरीं पर हुजूम
तल्ख़ मत हो कि मिठाई से मगस आती है
शैख़ ज़हूरूद्दीन हातिम
शेर
ऐ मुक़ल्लिद बुल-हवस हम से न कर दावा-ए-इश्क़
दाग़ लाला की तरह रखते हैं मादर-ज़ाद हम
इश्क़ औरंगाबादी
ग़ज़ल
बुल-हवस में भी न था वो बुत भी हरजाई न था
फिर भी हम बहरूपियों को ख़ौफ़-ए-रुस्वाई न था