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ग़ज़ल
कभी बे-नियाज़-ए-मख़्ज़न कभी दुश्मन-ए-किनारा
कहीं तुझ को ले न डूबे तिरी ज़िंदगी का धारा
फ़ारूक़ बाँसपारी
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ग़ज़ल
तबीअ'त बे-नियाज़-ए-लज़्ज़त-ए-ग़म होती जाती है
किसी से क्या मिरी दिल-बस्तगी कम होती जाती है
राजेश कुमार औज
नज़्म
'मजाज़' की मौत पर
ऐ बे-नियाज़-ए-शौक़-ए-फ़रावाँ कहाँ है तू
ऐ निगहत-ए-शमीम-ए-बहाराँ कहाँ है तू