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शेर
इश्क़ ख़ुद अपनी जगह मज़हर-ए-अनवार-ए-ख़ुदा
अक़्ल इस सोच में गुम किस को ख़ुदा कहते हैं
रविश सिद्दीक़ी
ग़ज़ल
मैं सरापा मज़हर-ए-इस्म-ए-ख़ुदा वल्लाह हूँ
हम-सफ़ीरो इस चमन में मुर्ग़-ए-बिस्मिल्लाह हूँ
ख़्वाज़ा मोहम्मद वज़ीर
ग़ज़ल
कोई आज़ुर्दा करता है सजन अपने को हे ज़ालिम
कि दौलत-ख़्वाह अपना 'मज़हर' अपना 'जान-ए-जाँ' अपना
मज़हर मिर्ज़ा जान-ए-जानाँ
ग़ज़ल
'मज़हर' छुपा के रख दिल-ए-नाज़ुक को अपने तू
ये शीशा बेचना है किसी मीरज़ा के हाथ
मज़हर मिर्ज़ा जान-ए-जानाँ
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ग़ज़ल
होगा पुर-नूर सियह-ख़ाना हमारे दिल का
इस में तुम ग़ौस-ए-ख़ुदा को ज़रा आ जाने दो
जमीला ख़ुदा बख़्श
ग़ज़ल
दाग़ बन कर तो रहा दामन-ए-क़ातिल पे मगर
बू-ए-ख़ूँ बहर-ए-ख़ुदा बू-ए-वफ़ा हो जाना
जमीला ख़ुदा बख़्श
ग़ज़ल
ये इश्क़ 'जमीला' का ऐ ख़िज़्र-ए-रह-ए-उल्फ़त
महबूब के जल्वे को असरार-ए-ख़ुदा जाना