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ग़ज़ल
अपनो की साज़िशों से ही मसरूफ़-ए-जंग हूँ
ग़ैरों से दुश्मनी की ज़रूरत नहीं मुझे
मोहम्मद असकरी आरिफ़
नज़्म
आईना-दर-आईना
इक आग थी कि राख में पोशीदा थी कहीं
इक जिस्म था कि रूह से मसरूफ़-ए-जंग था
हिमायत अली शाएर
समस्त
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नज़्म
भगवान 'कृष्ण' की तस्वीर देख कर
तुझे मैं आज तक मसरूफ़-ए-दर्स-ओ-वा'ज़ पाता हूँ
तिरी हस्ती मुकम्मल आगही महसूस होती है
कँवल एम ए
ग़ज़ल
तालिब-ए-सुल्ह हूँ मैं और नज़र तालिब-ए-जंग
रात दिन लड़ने पे तय्यार बड़ी मुश्किल है