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ग़ज़ल
रात-भर जो सामने आँखों के वो मह-पारा था
ग़ैरत-ए-महताब अपना दामन-ए-नज़्ज़ारा था
इमाम बख़्श नासिख़
नज़्म
चाँद की फ़रियाद
आम सी औरत को मह-पारा बना कर रख दिया
चाँद को टूटा हुआ तारा बना कर रख दिया
खालिद इरफ़ान
नज़्म
बरसात की शाम
बज़्म-ए-गर्दूँ पर हुआ है अंजुमन-आरा कोई
झाँकता पर्दे से है शायद ये मह-पारा कोई
बिस्मिल इलाहाबादी
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क़ितआ
चश्म-ए-बीना में सितारों की हक़ीक़त क्या है
आलम-ए-ख़ाक का जो ज़र्रा है मह-पारा है
अली सरदार जाफ़री
ग़ज़ल
सियह बिस्तर पड़े हैं सुब्ह-ए-नज़्ज़ारा उतर आए
कि शब को ज़ीना ज़ीना कोई मह-पारा उतर आए