aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
परिणाम "माज़रत"
ग्लेलियू ने कहा, "ज़मीन सूरज के गिर्द घूमती है।" ग्लेलियू ने दरियाफ़्त किया कि ज़मीन सूरज के गिर्द घूमती है। ये न लिख देना कि सूरज के गिर्द घूमती है। पानी उबल रहा था दाऊ जी ख़ुश हो रहे थे। इसी ख़ुशी में झूम झूम कर वो अपना ताज़ा बनाया...
वो एक दम चौंकता और माज़रत करता, “ओह, सआदत भाई माफ़ करना... अच्छा तो फिर क्या हुआ?” वो उस वक़्त बिल्कुल ख़ाली-उल-ज़हन होता। मैं कहता, “भई जावेद देखो, मुझे तुम्हारा ये वक़तन- फ़वक़तन मालूम नहीं किन गहराईयों में खो जाना बिल्कुल पसंद नहीं। मुझे तो डर लगता है, एक दिन...
‘‘सात बरस पैरिस में तब तो आप फ़्रैंच ख़ूब फ़र-फ़र बोल लेती होंगी?’’ अल्मास ने ज़रा नागवारी से कहा। ‘‘जी हाँ’’, पिरोजा हँसने लगी। अब ख़ास-ख़ास मेहमान जर्मन प्यानिस्ट के हमराह लाउन्ज की सिम्त बढ़ रहे थे। पिरोजा अल्मास से मा’ज़रत चाह कर एक अंग्रेज़ ख़ातून से उस प्यानिस्ट की...
हम हैं मुश्ताक़ और वो बे-ज़ारया इलाही ये माजरा क्या है
आख़िर हमने भी नौकरी की है, और कोई ओहदे-दार नहीं थे लेकिन जो काम किया, दिल खोल कर किया और आप दयानत-दार बनने चले हैं। घर में चाहे अंधेरा रहे, मस्जिद में ज़रूर चराग़ जलाएँगे। तुफ़ ऐसी समझ पर, पढ़ाना लिखाना सब अकारत गया। इसी अस्ना बंसीधर ख़स्ता-हाल मकान पर...
लड़की ने तीखी-तीखी नज़रों से अख़लाक़ की तरफ़ देखा और बैठ गई। बैठ कर उसने अपनी सहेली से सरगोशी में कुछ कहा, दोनों हौले-हौले हंसीं और फ़िल्म देखने में मशग़ूल होगईं। फ़िल्म के इख़्तिताम पर जब क़ाइद-ए-आ’ज़म की तस्वीर नमूदार हुई तो अख़लाक़ उठा। ख़ुदा मालूम क्या हुआ कि उसका...
फ़िक्र-ए-मआश मातम-ए-दिल और ख़याल-ए-यारतुम सब से माज़रत कि तबीअ'त उदास है
मुजीब थोड़ी देर ख़ामोश रहा। उसके बाद अपना बुझा हुआ चुरुट सुलगा कर बोला, “मा’ज़रत चाहता हूँ कि मैंने उस आदमी के मुतअ’ल्लिक़ आपसे पूछा जिसे आप जानते नहीं।” मैंने कहा, “मुजीब, तुम कैसी बातें करते हो। बहरहाल, तुम उस आदमी को जानते हो।”...
बेगम, “अब मुआ इधर आए तो खड़े-खड़े निकाल दूँ। घर नहीं चकला समझ लिया है। इतनी लौ अगर ख़ुदा से हो तो वली हो जाते। आप लोग तो शतरंज खेलें, मैं यहाँ चूल्हे-चक्की में सर खपाऊँ, लौंडी समझ रखा है, जाते हो हकीम साहब के यहाँ कि अब भी तअम्मुल...
ग़ालिब आपकी मा’ज़रत बजा, लेकिन अगर आप भी रज़ामंद नहीं तो फिर नज़्म पढ़ने के लिए किससे कहा जाये? जिद्दत लखनवी बसूला हैदराबादी जो हैं।...
ये लग़्ज़िशों का तसलसुल ये माज़रत पैहमये मरहले तो ग़लत-फ़हमियाँ बढ़ाते हैं
इस से पहले कि तेरी चश्म-ए-करममा'ज़रत की निगाह बन जाए
दुम तो बिल्कुल साफ़ उड़ गई मगर बदक़िस्मती मुलाहिज़ा हो, दफ़्तर का वक़्त था और मुंशी जी एक मुक़द्दमे वाले को फांसे ला रहे थे। बिल्ली को इसी तरह दबा हुआ देखकर सीढ़ियों पर बेतरह लपके कि ये माजरा क्या है। ऐन उस वक़्त जब कि मैंने दुम काटी इंतिहाई...
ज़माने वालों के डर से उठा न हाथ मगरनज़र से उस ने ब-सद मा'ज़रत सलाम किया
सरदार ने माज़रत भरे लहजे में उससे कहा, “गोश्त वग़ैरा तो, यहाँ नहीं मिलेगा।” उस औरत ने एक रिकार्ड पर सुई रखी, “मिल जाएगा। तुम से जो कहा है, वो करो और देखो आग काफ़ी हो।”...
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