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नज़्म
सहेली बूझ पहेली
परचम सर-ए-मैदान-ए-विग़ा खोल रहा है
मंसूर के पर्दे में ख़ुदा बोल रहा है
शोरिश काश्मीरी
ग़ज़ल
'क़ुदसी' तो अकेला नहीं मैदान-ए-सुख़न में
हर कूचा-ओ-बाज़ार में फ़न-कार बहुत हैं
औलाद-ए-रसूल क़ुद्सी
समस्त
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मर्सिया
दश्त-ए-विग़ा में नूर-ए-ख़ुदा का ज़ुहूर है
दश्त-ए-विग़ा में नूर-ए-ख़ुदा का ज़ुहूर है
मीर अनीस
मर्सिया
मैदान-ए-क़यामत को भी महशर नज़र आया
गर्द अपने लिए नेज़ों पे किश्तों के सर आया
मिर्ज़ा सलामत अली दबीर
नज़्म
फागुन
मैदान-ए-नौहा-ख़्वाँ में आ के ठिठक गई है
मैदान-ए-नौहा-ख़्वाँ में इक कैनवस रखा है