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ग़ज़ल
नंग-ए-मय-ख़ाना था मैं साक़ी ने ये क्या कर दिया
पीने वाले कह उठे या पीर-ए-मय-ख़ाना मुझे
जिगर मुरादाबादी
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नज़्म
शिकस्त-ए-तौबा
उस जान-ए-मय-कदा की क़सम बारहा 'जिगर'
कुल आलम-ए-बसीत पे मैं छा के पी गया
जिगर मुरादाबादी
नज़्म
नर्गिस-ए-मस्ताना
तू साक़ी-ए-मय-ख़ाना भी तू नश्शा ओ मय भी
मैं तिश्ना-ए-हस्ती मुझे मस्ताना बना दे
जिगर मुरादाबादी
नज़्म
दरीचे खोले रखता हूँ
वो ब-ज़ाहिर कुछ नहीं कहते
मगर मैं ख़ाना-ए-दिल के दरीचे