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ग़ज़ल
उन की नज़रों का वो पैवस्त-ए-रग-ए-जाँ होना
दिल जिगर दोनों का शर्मिंदा-ए-एहसाँ होना
हामिद इलाहाबादी
शेर
हज़ारों बार सींचा है इसे ख़ून-ए-रग-ए-जाँ से
तअ'ज्जुब है मिरे गुलशन की वीरानी नहीं जाती