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शेर
उम्र भर रश्क-ए-अदू साथ था कहता क्या हाल
वो मिला भी कभी तन्हा तो मैं तन्हा न हुआ
मुंशी अमीरुल्लाह तस्लीम
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ग़ज़ल
तू ही संग-ए-मील है अपने लिए सुल्तान-'रश्क'
अपने ही रस्ते में जो हाइल है वो पत्थर भी तू
सुलतान रशक
ग़ज़ल
खो चुका है उस को जब तो ख़ुद ही ऐ सुल्तान-'रश्क'
अब धड़कता है दिल-ए-बे-मुद्दआ किस के लिए
सुलतान रशक
ग़ज़ल
'रश्क'-साहब मैं असीर-ए-जुर्म-ए-ना-मा'लूम हूँ
कैसे मुमकिन है मुझे नाकामियों की ख़ू न हो
सुलतान रशक
ग़ज़ल
ख़ाली न आए यार की महफ़िल से हम कभी
रश्क-ए-अदू से और भी ज़ख़्म-ए-जिगर बढ़ा