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ग़ज़ल
निगाह-ए-शौक़ इतना गुदगुदा दे उन के जल्वे को
कि वो ख़ुद बा-ख़बर हो जाएँ राह-ओ-रस्म-ए-मंज़िल से
वली काकोरवी
ग़ज़ल
सरफ़राज़ बज़्मी
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ग़ज़ल
अपनी और किसी से किस दिन राह-ओ-रस्म-ओ-रिफ़ाक़त थी
आती जाती साँस थी जिस की साअ'त संगत थी
बशीर अहमद बशीर
ग़ज़ल
तुम से राह-ओ-रस्म बढ़ा कर दीवाने कहलाएँ क्यूँ
जिन गलियों में पत्थर बरसें उन गलियों में जाएँ क्यूँ
कफ़ील आज़र अमरोहवी
ग़ज़ल
बहुत समझे हुए है शेख़ राह-ओ-रस्म-ए-मंज़िल को
यहाँ मंज़िल को भी हम जादा-ए-मंज़िल समझते हैं