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ग़ज़ल
अकबर इलाहाबादी
ग़ज़ल
इस ख़राबे में नए मौसम की साज़िश थी तो 'रिंद'
लज़्ज़त-ए-एहसास के लम्हों के जलते पर भी थे
पी पी श्रीवास्तव रिंद
ग़ज़ल
ऐ 'रिंद' उलझनों सी रही बे-कराँ सी सोच
फ़िक्र-ए-सुख़न में दर्द जो उभरा तो डर लगा
पी पी श्रीवास्तव रिंद
ग़ज़ल
'रिंद' जब बे-सम्तियों में ख़ुश्क पत्ते उड़ रहे हों
तोहमतें किस के लिए शाम-ए-ख़िज़ाँ सर पर उठाए
पी पी श्रीवास्तव रिंद
ग़ज़ल
जनाब-ए-'रिंद' तुम तो पूजते आए हो पत्थर को
जो दरवाज़े पे चस्पाँ है वो पत्थर क्यों नहीं देखा
पी पी श्रीवास्तव रिंद
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ग़ज़ल
सफ़ेद बालों में मेहंदी रचाए फिरते हो
जनाब-ए-'रिंद' तुम्हारा भी ढंग है कुछ और
पी पी श्रीवास्तव रिंद
ग़ज़ल
बहुत अजीब है बातिन की गुमरही ऐ 'रिंद'
सुकूत-ए-ज़ाहिरी टुकड़ों में था बिखरने लगा
पी पी श्रीवास्तव रिंद
ग़ज़ल
क्या कहें 'रिंद' कि इस दौर-ए-ज़िया-परवर में
कितनी तारीक ख़लाओं ने मुक़द्दर गुज़रा
पी पी श्रीवास्तव रिंद
ग़ज़ल
शब के सन्नाटे में सुनता था जिसे मैं सुब्ह तक
'रिंद' वो कर्ब-ए-अना का शोर था जो मुझ में था