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ग़ज़ल
रुख़-ए-रौशन का रौशन एक पहलू भी नहीं निकला
जिसे मैं चाँद समझा था वो जुगनू भी नहीं निकला
इक़बाल साजिद
शेर
रुख़-ए-रौशन से यूँ उट्ठी नक़ाब आहिस्ता आहिस्ता
कि जैसे हो तुलू-ए-आफ़्ताब आहिस्ता आहिस्ता