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शेर
असरार-उल-हक़ मजाज़
ग़ज़ल
किसी के भूल जाने से मोहब्बत कम नहीं होती
मोहब्बत ग़म तो देती है शरीक-ए-ग़म नहीं होती
ग़म बिजनौरी
ग़ज़ल
मुक़द्दर को तिरे मंज़ूर कुछ 'ग़म' है तो ये ही है
कि तुझ सा इस ज़माने में कोई बे-दिल नहीं मिलता
ग़म बिजनौरी
ग़ज़ल
अरे 'ग़म' लग़्ज़िश-ए-सोज़-ए-जिगर का कैफ़ क्या कहिए
ज़बाँ मजबूर हो जाती है जब दिल में उतरती है