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ग़ज़ल
जो तिरे रू-ए-दरख़्शाँ पे नज़र रखते हैं
वो ख़यालों में कहाँ शम्स-ओ-क़मर रखते हैं
सुमन ढींगरा दुग्गल
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नज़्म
एक हुस्न-फ़रोश से
मगर नादान है तू आह धोका खा रही है तू
तिरा रू-ए-दरख़्शाँ है ब-ज़ाहिर माहताब-आसा
अख़्तर शीरानी
ग़ज़ल
ये रू-ए-दरख़्शाँ ये ज़ुल्फ़ों के साए
ये हंगामा-ए-सुबह-ओ-शाम अल्लाह अल्लाह
सूफ़ी ग़ुलाम मुस्ताफ़ा तबस्सुम
ग़ज़ल
हमारी आँख से गिरते नहीं ये अश्क के क़तरे
निछावर करते हैं मोती तुम्हारे रू-ए-रौशन पर
नवाब शाहजहाँ बेगम शाहजहाँ
ग़ज़ल
पड़ा था अक्स-ए-रू-ए-नाज़नीं अर्सा हुआ उस को
पर अब तक तैरता फिरता है शक्ल-ए-गुल समुंदर में