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शेर
शह-ए-बे-ख़ुदी ने अता किया मुझे अब लिबास-ए-बरहनगी
न ख़िरद की बख़िया-गरी रही न जुनूँ की पर्दा-दरी रही
सिराज औरंगाबादी
ग़ज़ल
शह-ए-बे-ख़ुदी ने अता किया मुझे अब लिबास-ए-बरहनगी
न ख़िरद की बख़िया-गरी रही न जुनूँ की पर्दा-दरी रही
सिराज औरंगाबादी
नज़्म
ख़ूनी क़िला
लिबास-ए-बरहनगी में निहाँ क़लो-पत्रा
मियान-ए-नील कोई लाश देख कर हँस दे
वामिक़ जौनपुरी
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तंज़-ओ-मज़ाह
इतवार: शादी करने, अफ़सरों से मुलाक़ात करने लिए।
बुध: नया लिबास पहनने, ग़ुस्ल ए सेहत के लिए।
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
'फ़ज़ा' तुझी को ये सफ़्फ़ाकी-ए-हुनर भी मिली
इक एक लफ़्ज़ को यूँ बे-लिबास कर जाना
फ़ज़ा इब्न-ए-फ़ैज़ी
तंज़-ओ-मज़ाह
ग़ालिब: ढाँपा कफ़न ने दाग़-ए-उयूब-ए-बरहनगी
मैं वर्ना हर लिबास में नंग-ए-वुजूद था।