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ग़ज़ल
फिर वही लुत्फ़-ए-ख़लिश हो वही सोज़िश देखूँ
क्या बिगाड़ेगी मिरा चर्ख़ की गर्दिश देखूँ
अब्दुर्रशीद ख़ान कैफ़ी महकारी
ग़ज़ल
कभी शिकवा-ज़न कभी नुक्ता-चीं कभी बाग़ियों का हिमायती
ये 'ख़लिश' है कौन कहो उसे रहे ए'तिदाल के दरमियाँ
बद्र-ए-आलम ख़लिश
ग़ज़ल
बद्र-ए-आलम ख़लिश
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ग़ज़ल
निगाह-ए-दीदा-ए-ता'बीर के हवाले 'ख़लिश'
है ये बयाज़ अलग इंतिख़ाब-ए-ख़्वाब के साथ