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नज़्म
आदमी-नामा
टुकड़े चबा रहा है सो है वो भी आदमी
अब्दाल, क़ुतुब ओ ग़ौस वली-आदमी हुए
नज़ीर अकबराबादी
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ग़ज़ल
कल तलक जो था तसव्वुर अंजुमन-आराइयों का
वो मुक़द्दर बन गया है अब मिरी तन्हाइयों का
वलीउल्लाह वली
ग़ज़ल
गली से तेरी जो टुक हो के आदमी निकले
तो उस के साया से झट बन के इक परी निकले