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ग़ज़ल
सुब्ह तलक अफ़्लाक पे इक कैफ़िय्यत तारी करता हूँ
चाँद को अपनी नज़्म सुना कर शब-बेदारी करता हूँ
औरंग ज़ेब
ग़ज़ल
मीठे गीतों की वो रिस्ना मीठी धुन और मीठे बोल
पूरन-माशी पर आँगन में शब-बेदारी होती थी
जानाँ मलिक
ग़ज़ल
हर रंग-ए-जुनूँ भरने वालो शब-बेदारी करने वालो
है इश्क़ वो मज़दूरी जिस में मेहनत भी वसूल नहीं होती
जमाल एहसानी
ग़ज़ल
अपने सवालों से घबरा कर सब ख़ुद ही रो देते थे
चाहने वालों ने आँखों में शब भर शब-बेदारी की