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ग़ज़ल
जानते अपने सिवा सब को हैं बे-मेहर ओ वफ़ा
अपने में गर शम्मा-ए-मेहर-ओ-वफ़ा पाते हैं हम
अल्ताफ़ हुसैन हाली
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ग़ज़ल
पैकर-ए-मेहर-ओ-वफ़ा रूह-ए-ग़ज़ल या'नी तू
मिल गया 'इश्क़ को इक हुस्न-ए-महल या'नी तू
इफ़्तिख़ार राग़िब
ग़ज़ल
साहिब-ए-मेहर-ओ-वफ़ा अर्ज़-ओ-समा क्यूँ चुप है
हम पे तो वक़्त के पहरे हैं ख़ुदा क्यूँ चुप है
उबैदुल्लाह अलीम
ग़ज़ल
अनवर अलीमी
रुबाई
जानाँ को सर-ए-मेहर-ओ-वफ़ा है झूट सब
कुछ उस ने कहा है या लिखा है झूट सब
सय्यद यूसुफ़ अली खाँ नाज़िम
ग़ज़ल
है तुम को दा'वा-ए-मेहर-ओ-वफ़ा तो दर्द होगा ही
'अबस ही दर्द का सौदा किया तो दर्द होगा ही