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ग़ज़ल
जो रक्खे चारागर काफ़ूर दूनी आग लग जाए
कहीं ये ज़ख़्म-ए-दिल शर्मिंदा-ए-मरहम भी होते हैं
दाग़ देहलवी
ग़ज़ल
था मज़ाक़-ए-दर्द 'फ़र्रुख़' सई-ए-दरमाँ से बुलंद
ज़ख़्म-ए-दिल मेरा कभी शर्मिंदा-ए-मरहम न था
सय्यद वाजिद अली फ़र्रुख़ बनारसी
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ग़ज़ल
ज़ख़्म देते जाएँ लेकिन फ़िक्र-ए-मरहम भी करें
दर्द जब हद से सिवा हो जाए तो कम भी करें
शकील इबन-ए-शरफ़
ग़ज़ल
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
मुझ से न पूछ अपनी ही तेग़-ए-अदा से पूछ
क्यूँ तेरी चश्म-ए-लुत्फ़ भी मरहम न हो सकी
आल-ए-अहमद सुरूर
ग़ज़ल
दिल में शर्मिंदा हैं एहसास-ए-ख़ता रखते हैं
हम गुनहगार हैं पर ख़ौफ़-ए-ख़ुदा रखते हैं