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नज़्म
चंद रोज़ और मिरी जान
अपनी दो रोज़ा जवानी की शिकस्तों का शुमार
चाँदनी रातों का बेकार दहकता हुआ दर्द
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
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नज़्म
घास तो मुझ जैसी है
मेरी मानो तो वही पगडंडी बनाने का ख़याल दुरुस्त था
जो हौसलों की शिकस्तों की आँच न सह सकें
किश्वर नाहीद
नज़्म
इसी दो-राहे पर
अपनी नादार मोहब्बत की शिकस्तों के तुफ़ैल
ज़िंदगी पहले भी शर्माई थी झुनझुलाई थी
साहिर लुधियानवी
ग़ज़ल
लय जो टूटी तो सदा आई शिकस्त-ए-दिल की
रग-ए-जाँ का कोई रिश्ता है रग-ए-साज़ के साथ