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नअत
ये कह के दर-ए-हक़ से ली मौत में कुछ मोहलत
मीलाद की आमद है महफ़िल को सजाना है
पीर नसीरुद्दीन शाह नसीर
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ग़ज़ल
ज़ख़्म को अपने फूल समझना मोती कहना अश्कों को
इश्क़ का कारोबार सजाना हम को अच्छा लगता था
कृष्ण अदीब
ग़ज़ल
सलीक़े से सजाना आइनों को वर्ना ऐ 'रज़्मी'
ग़लत रुख़ हो तो फिर चेहरों का अंदाज़ा नहीं होता
मुज़फ़्फ़र रज़्मी
रेखाचित्र
रशीद अहमद सिद्दीक़ी
नज़्म
ज़िंदगी
इक नई तर्ज़ पे दुनिया को सजाना है हमें
तू भी आ वक़्त के सीने में शरारा बन जा